Sunday, May 1, 2011

जीवन झांकी - संतश्री आसारामजी बापू



प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद सदगुरुदेव
संत श्री आसाराम जी महाराज की

जीवन-झाँकी

अलख पुरुष की आरसी, साधू का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।

किसी भी देश की संपत्ति संतजन ही होते हैं। ये जिस समय आविर्भूत होते हैं, उस समय के जन-समुदाय के लिए उनका जीवन ही सच्चा पथ-प्रदर्शक होता है। एक प्रसिद्ध संत तो यहाँ तक कहते हैं कि भगवान के दर्शन से भी अधिक लाभ भगवान के चरित्र सुनने से मिलता है और भगवान के चरित्र सुनने से भी ज़्यादा लाभ सच्चे संत के जीवन-चरित्र सुनने से मिलता है। वस्तुतः विश्व के कल्याण के लिए जिस समय जिस धर्म की आवश्यकता होती है, उसका आदर्श उपस्थित करने के लिए स्वयं भगवान ही तत्कालीन संतों के रूप में नित्य-अवतार लेकर आविर्भूत होते हैं। वर्त्तमान युग में यह दैवी कार्य जिन संतों के द्वारा हो रहा है, उनमें एक लोक लाडले संत हैं अमदावाद के श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ योगीराज पूज्यपाद श्री आसाराम जी महाराज।

महाराजश्री इतनी ऊँचाई पर अवस्थित हैं कि शब्द उन्हें बाँध नहीं सकते। जैसे विश्वरूपदर्शन मानव-चक्षु से नहीं हो सकता, उसके लिए दिव्य दृष्टि ही चाहिए और जैसे विराट को नापने के लिए वामन का नाप बौना पड़ जाता है वैसे ही पूज्यश्री के विषय में कुछ भी लिखना मध्याह्न के देदीप्यमान सूर्य को दीया दिखाने जैसा ही होगा। फिर भी अंतर में श्रद्धा, प्रेम व साहस जुटाकर गुह्य ब्रह्मविद्या के इन मूर्तिमंत स्वरूप की जीवन-झाँकी प्रस्तुत करने का हम एक विनम्र प्रयास कर रहे हैं।

जन्म परिचयः
संत श्री आसाराम जी महाराज का जन्म सिंध प्रान्त के नवाब शाह जिले में सिंधु नदी के तट पर बसे बेराणी गाँव में नगरसेठ श्री थाऊमलजी सिरुमलानी के घर दिनांक 17 अप्रैल 1941 तदनुसार विक्रम संवत 1998 को चैत्रवद् षष्ठी के दिन हुआ था। आपश्री की पूजनीया माताजी का नाम मँहगीबा है। उस समय नामकरण संस्कार के नाम आपका नाम आसुमल रखा गया था।

भविष्यवेत्ताओं की घोषणाएँ-
बाल्यावस्था से ही आपश्री के चेहरे पर विलक्षण कांति तथा नेत्रों में एक अदभुत तेज था। आपकी विलक्षण क्रियाओं को देखकर अनेक लोगों तथा भविष्यवेत्ताओं ने यह भविष्यवाणी की थी कि ‘यह बालक पूर्व का अवश्य ही कोई सिद्ध योगीपुरुष है, जो अपना अधूरा कार्य पूरा करने के लिए ही अवतरित हुआ है। निश्चित ही यह एक अत्यधिक महान् संत बनेगा.....’ और आज अक्षरशः वही भविष्यवाणी सत्य हो रही है।

बाल्यकालः
संतश्री का बाल्यकाल संघर्षों की एक लंबी कहानी है। विभाजन की विभीषिका को सहन कर भारत के प्रति अत्यधिक प्रेम होने के कारण आपका परिवार अपनी अथाह चल-अचल सम्पत्ति को छोड़कर यहाँ के अमदावाद शहर में 1947 में आ पहुँचा। अपना धन-वैभव सब कुछ छूट जाने के कारण वह परिवार आर्थिक विषमता के चक्रव्यूह में फँस गया लेकिन आजीविका के लिए किसी तरह से पिताश्री थाऊमलजी द्वारा लकड़ी और कोयले का व्यवसाय आरम्भ करने से आर्थिक परिस्थिति में सुधार होने लगा। तत्पश्चात शक्कर का व्यवसाय भी आरम्भ हो गया।

शिक्षाः
संतश्री की प्रारम्भिक शिक्षा सिन्धी भाषा से आरम्भ हुई। तदनन्तर सात वर्ष की आयु में प्राथमिक शिक्षा के लिए आपको जयहिन्द हाई स्कूल, मणिनगर (अमदावाद) में प्रवेश दिलवाया गया। अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति के प्रभाव से आप शिक्षकों द्वारा सुनाई जाने वाली कविता, गीत या अन्य अध्याय तत्क्षण पूरी-की-पूरी हूबहू सुना देते थे। विद्यालय में जब भी मध्याह्न की विश्रान्ति होती, बालक आसुमल खेलने-कूदने या गप्पेबाजी में समय न गँवाकर एकांत में किसी वृक्ष के नीचे ईश्वर के ध्यान में बैठ जाते थे।

चित्त की एकाग्रता, बुद्धि की तीव्रता, नम्रता, सहनशीलता आदि गुणों के कारण बालक का व्यक्तित्व पूरे विद्यालय में मोहक बन गया था। आप अपने पिता के लाडले संतान थे। अतः पाठशाला जाते समय पिताश्री आपकी जेब में पिश्ता, बादाम, काजू, अखरोट आदि भर देते थे जिसे आसुमल स्वयं भी खाते एवं प्राणिमात्र में इनका मित्रभाव होने से ये परिचित-अपरिचित सभी को भी खिलाते थे। पढ़ने में ये बड़े मेधावी थे तथा प्रतिवर्ष प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे, फिर भी इस सामान्य विद्या का आकर्षण आपको कभी नहीं रहा। लौकिक विद्या, योगविद्या और आत्मविद्या ये तीन विद्याएँ हैं, लेकिन आपका पूरा झुकाव योगविद्या व आत्मविद्या पर ही रहा। आज तक सुने गये जगत के आश्चर्यों को भी मात कर दे, ऐसा यह आश्चर्य है कि तीसरी कक्षा तक पढ़े हुए महाराजश्री के आज M.A. व P.hd. पढ़े हुए तथा लाखों प्रबुद्ध मनीषिगण भी शिष्य बने हुए हैं।

पारिवारिक विवरणः
माता पिता के अतिरिक्त बालक आसुमल के परिवार में एक बड़े भाई तथा दो बड़ी एवं एक छोटी बहन थी। बालक आसुमल को माता जी की ओर से धर्म के संस्कार बचपन से ही दिये गये थे। माँ इन्हें ठाकुरजी की मूर्ति के सामने बिठा देती और कहती- "बेटा, भगवान की पूजा और ध्यान करो। इससे प्रसन्न होकर वे तुम्हे प्रसाद देंगे।" वे ऐसा ही करते और माँ अवसर पाकर उनके सम्मुख चुपचाप मक्खन-मिश्री रख जाती। बालक आसुमल जब आँखें खोलकर प्रसाद देखते तो प्रभु प्रेम में पुलकित हो उठते थे।

घर में रहते हुए भी बढ़ती उम्र के साथ-साथ उनकी भक्ति भी बढ़ती ही गई। प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर ठाकुर जी की पूजा में लग जाना उनका नियम था।

भारत पाक विभाजन की भीषण आँधियों में अपना सब कुछ लुटाकर यह परिवार अभी ठीक ढंग से उठ भी नहीं पाया था कि दस वर्ष की कोमल वय में बालक आसुमल को संसार की विकट परिस्थितियों से जूझने के लिए परिवार सहित छोड़कर पिताश्री थाऊमलजी देहत्याग कर स्वधाम चले गये।

पिता के देहत्यागोपरांत आसुमल को पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी। समय वे चौथी कक्षा के विद्यार्थी थे। पढ़ाई छोड़कर छोटी सी उम्र में ही कुटुम्ब को सहारा देने के लिए सिद्धपुर में एक परिजन के यहाँ आप नौकरी करने लगे। मोल-तोल में इनकी सच्चाई, परिश्रमी एवं प्रसन्न स्वभाव से परिजन की उस दुकान पर अच्छी कमाई होने लगी। आपने उनका ऐसा विश्वास अर्जित कर लिया कि छोटी-सी उम्र में ही उन सज्जन ने आपको ही दुकान का सर्वेसर्वा बना दिया। मालिक कभी आता, कभी दो-दो दिन नहीं भी। आपने दुकान का चार वर्ष तक कार्यभार सम्भाला।

रात और प्रभात जप और ध्यान में।
और दिन में आसुमल मिलते दुकान में।।

अब तो लोग उनसे आशीर्वाद, मार्गदर्शन लेने आते। आपकी आध्यात्मिक शक्तियों से सभी परिचित होने लगे। जप-ध्यान से आपकी सुषुप्त शक्तियाँ विकसित होने लगी थीं। अंतः प्रेरणा से आपको सही मार्गदर्शन प्राप्त होता और इससे लोगों के जीवन की गुत्थियाँ सुलझा दिया करते थे।

गृहत्यागः
आसुमल की विवेक सम्पन्न बुद्धि ने संसार की असारता तथा परमात्मा ही एकमात्र परमसार है, यह बात दृढ़तापूर्वक जान ली थी। उन्होंने ध्यान-भजन और बढ़ा दिया। ग्यारह वर्ष की उम्र में तो अनजाने ही रिद्धियाँ-सिद्धियाँ उनकी सेवा में हाजिर हो चुकी थीं, लेकिन वे उसमें ही रुकने वाले नहीं थे। वैराग्य की अग्नि उनके हृदय में प्रकट हो चुकी थी।

तरुणाई के प्रवेश के साथ ही घरवालों ने इनकी शादी करने की तैयारी की। वैरागी आसुमल सांसारिक बंधनों में नहीं फँसना चाहते थे इसलिए विवाह के आठ दिन पूर्व ही वे चुपके से घर छोड़ कर निकल पड़े। काफी खोजबीन के बाद घरवालों नें उन्हें भरूच के एक आश्रम में पा लिया।

विवाहः
"चूँकि पूर्व में सगाई निश्चित हो चुकी है, अतः संबंध तोड़ना परिवार की प्रतिष्ठा पर आघात पहुँचाना होगा। अब हमारी इज्जत तुम्हारे हाथ में है।" सभी परिवारजनों के बार-बार इस आग्रह के वशीभूत होकर तथा तीव्रतम प्रारब्ध के कारण उनका विवाह हो गया, किन्तु आसुमल उस स्वर्णबंधन में रुके नहीं। अपनी सुशील एवं पवित्र धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी को समझाकर अपने परम लक्ष्य ‘आत्म-साक्षात्कार’ की प्राप्ति तक संयमी जीवन जीने का आदेश दिया। अपने पूज्य स्वामी के धार्मिक एवं वैराग्यपूर्ण विचारों से सहमत होकर लक्ष्मीदेवी ने भी तपोनिष्ठ एवं साधनामय जीवन व्यतीत करने का निश्चय कर लिया।

पुनः गृहत्याग एवं ईश्वर की खोजः
विक्रम संवत 2020 की फाल्गुन सुद 11 तदनुसार 23 फरवरी 1964 के पवित्र दिवस आप किसी भी मोह-ममता एवं अन्य विघ्न-बाधाओं की परवाह न करते हुए अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए घर छोड़कर चल पड़े। घूमते-घामते आप केदारनाथ पहुँचे, जहाँ अभिषेक करवाने पर आपको पंडितों ने आशीर्वाद दिया किः ‘लक्षाधिपति भव।’ जिस माया को ठुकराकर आप ईश्वर की खोज में निकले, वहाँ भी मायाप्राप्ति का आशीर्वाद....! आपको यह आशीर्वाद रास न आया। अतः आपने पुनः अभिषेक करवा कर ईश्वरप्राप्ति का आशीर्वाद पाया एवं प्रार्थना कीः ‘भले माँगने पर भी दो समय का भोजन न मिले लेकिन हे ईश्वर! तेरे स्वरूप का मुझे ज्ञान मिले’ तथा ‘इस जीवन का बलिदान देकर भी अपने लक्ष्य की सिद्धि करके रहूँगा...!’ इस प्रकार का दृढ़ निश्चय करके वहाँ से आप भगवान श्रीकृष्ण की पवित्र लीलास्थली वृन्दावन पहुँच गये। होली के दिन यहाँ के दरिद्रनारायण में भंडारा कर कुछ दिन वहीं पर रुके और फिर उत्तराखंड की ओर निकल पड़े। गुफाओं, कन्दराओं, वनाच्छाति घाटियों, हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाओं एवं अनेक तीर्थों में घूमे। कंटकाकीर्ण मार्गों पर चले, शिलाओं की शैया पर सोये। मौत का मुकाबला करना पड़े, ऐसे दुर्गम स्थानों पर साधना करते हुए वे नैनिताल के जंगलों में पहुँचे।

सदगुरु की प्राप्तिः
ईश्वरप्राप्ति की तड़प से वे नैनिताल के जंगलों में पहुँचे। चालीस दिवस के लम्बे इन्तजार के बाद वहाँ इनका परमात्मा से मिलाने वाले परम पुरुष से मिलन हुआ, जिनका नाम था स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज।

वह बड़ी अमृतवेला कही जाती है, जब ईश्वर की खोज के लिए निकले परम वीर पुरुष को ईश्वरप्राप्त किसी सदगुरु का सान्निध्य मिलता है। उस दिन को नवजीवन प्राप्त होता है।

गुरु के द्वार पर भी कठोर कसौटियाँ हुई थीं, लेकिन परमात्मा के प्यार में तड़पता यह परम वीर पुरुष सारी-की-सारी कसौटियाँ पार करके सदगुरुदेव का कृपाप्रसाद पाने का अधिकारी बन गया। सदगुरुदेव ने साधना-पथ के रहस्यों को समझाते हुए आसुमल को अपना लिया। आध्यात्मिक मार्ग के इस पिपासु-जिज्ञासु साधक की आधी साधना तो उसी दिन पूर्ण हो गई जब सदगुरु ने अपना लिया। परम दयालु सदगुरु साईँ श्री लीलाशाह जी महाराज ने आसुमल को घर में ही ध्यान भजन करने का आदेश देकर 70 दिन तक वापस अमदावाद भेज दिया। घर आये तो सही लेकिन जिस सच्चे साधक का आखिरी लक्ष्य सिद्ध न हुआ हो, उसे चैन कहाँ....?

तीव्र साधना की ओरः
तेरह दिन तक घर रुके रहने के बाद वे नर्मदा किनारे मोटी कोरल पहुँच कर पुनः तपस्या करने लगे। आपने यहाँ चालीस दिन का अनुष्ठान आरंभ किया। कई अन्धेरी और चाँदनी रातें आपने यहाँ नर्मदा मैया की विशाल खुली बालुका में प्रभु-प्रेम की अलौकिक मस्ती में बिताई। प्रभु-प्रेम में आप इतने खो जाते थे कि न तो शरीर की सुध-बुध रहती तथा न ही खाने पीने का ख्याल........ घंटों समाधि में ही बीत जाते।

साधनाकाल की प्रमुख घटनाएँ....
एक दिन वे नर्मदा नदी के किनारे ध्यानस्थ बैठे थे। मध्यरात्रि के समय जोरों की आँधी-तूफान चली। आप उठकर चाणोद करनाली में किसी मकान के बरामदे में जाकर बैठ गये। रात्रि में कोई मछुआरा बाहर निकला और संतश्री को चोर-डाकू समझकर उसने पूरे मोहल्ले को जगाया। सभी लोग लाठी, भाला, चाकू, छुरी, धारिया आदि लेकर हमला करने को उद्यत खड़े हो गये, लेकिन जिस के पास आत्मशान्ति का हथियार हो, उसका भला कौन सामना कर सकता है? शोरगुल के कारण साधक का ध्यान टूटा और एक प्रेमपूर्ण दृष्टि डालते हुए धीर-गंभीर निश्चल कदम उठाता हुआ आसुमल भीड़ चीरकर बाहर निकल आये। बाद में लोगों को सच्चाई का पता चला तो सबने क्षमा माँगी।

आप अनुष्ठान में संलग्न ही थे कि घर से माताजी एवं धर्मपत्नी आपको वापस घर ले जाने के लिए आ पहुँची। आपको इस अवस्था में देखकर मातुश्री एवं धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी दोनों ही फूट-फूट कर रो पड़ीं। इस करुण दृश्य को देखकर अनेक लोगों का दिल पसीज उठा, लेकिन इस वीर साधक की दृढ़ता तनिक भी न डगमगाई।

अनुष्ठान के बाद मोटी कोरल गाँव से संतश्री की विदाई का दृश्य भी अत्यधिक भावुक था। हजारों आँखें उनके वियोग के समय बरस रही थीं। लाल जी महाराज जैसे स्थानीय पवित्र संत भी आपको विदा करने स्टेशन तक आये। मियांगाँव स्टेशन से आपने अपनी मातुश्री एवं धर्मपत्नी को अमदावाद की ओर जाने वाली गाड़ी में बिठाया और स्वयं चलती गाड़ी से कूदकर सामने के प्लेटफार्म पर खड़ी गाड़ी से मुंबई की तरफ रवाना हो गये।

आत्मसाक्षात्कारः
दूसरे दिन प्रातः मुंबई में वृजेश्वरी पहुँचे, जहाँ आपके सदगुरुदेव परमपूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज एकांतवास हेतु पधारे थे। साधना की इतनी तीव्र लगनवाले अपने प्यारे शिष्य को देखकर सदगुरुदेव का करुणापूर्ण हृदय छलक उठा। गुरुदेव ने वात्सल्य बरसाते हुए कहाः "हे वत्स! ईश्वरप्राप्ति के लिए तुम्हारी इतनी तीव्र लगन देखकर मैं प्रसन्न हूँ।"

गुरुदेव के हृदय से बरसते हुए कृपा-अमृत ने साधक की तमाम साधनाएँ पूर्ण कर दीं। पूर्ण गुरु ने शिष्य को पूर्ण गुरुत्व में सुप्रतिष्ठित कर दिया। साधक में से सिद्ध प्रकट हो गया। आश्विन मास, शुक्ल पक्ष द्वितीय संवत 2021 तदनुसार 7 अक्तूबर 1964 बुधवार को मध्याह्न ढाई बजे आपको आत्मदेव-परमात्मा का साक्षात्कार हो गया। आसुमल में से संत श्री आसाराम जी का आविर्भाव हो गया।

आत्म-साक्षात्कार पद को प्राप्त करने के बाद उससे ऊँचा कोई पद प्राप्त करना शेष नहीं रहता है। उससे बड़ा न तो कोई लाभ है, न पुण्य...। इसे प्राप्त करना मनुष्य जीवन का परम कर्त्तव्य माना गया है। जिसकी महिमा वेद और उपनिषद आदि काल से गाते आ रहे हैं.. जहाँ सुख और दुःख की तनिक भी पहुँच नहीं है... जहाँ सर्वत्र आनंद ही आनंद रहता है.... देवताओं के लिए भी सुलभ इस परम आनन्दमय पद में स्थिति प्राप्त कर आप संत श्री आसाराम जी महाराज बन गये।

एकांत साधनाः
सात वर्ष तक डीसा आश्रम में माउन्ट आबू की नलगुफा में योग की गहराइयों तथा ज्ञान के शिखरों की यात्रा की। ध्यानयोग, लययोग, नादानुंधानयोग, कुंडलिनी योग, अहंग्रह उपासना आदि भिन्न-भिन्न मार्गों से अनुभूतियाँ करने वाले इस परिपक्व साधक को सिद्ध अवस्था में पाकर प्रसन्नात्मा, प्राणिमात्र के परम हितैषी पूज्यपाद लीलाशाह जी बापू ने आप में औरों को उन्नत करने का सामर्थ्य पूर्ण रूप से विकसित देखकर आदेश दियाः

"मैंने तुम्हें जो बीज दिया था, उसको तुमने ठीक वृक्ष के रूप में विकसित कर लिया है। अब इसके मीठे फल समाज में बाँटो। पाप, ताप, शौक, तनाव, वैमनस्य, विद्रोह, अहंकार और अशांति से तप्त संसार के तुम्हारी ज़रुरत है।"

गुलाब का फूल दिखाते हुए गुरुदेव ने कहाः "इस फूल को मूँग, मटर, गुड़, चीनी पर रखो और फिर सूँघो तो सुगन्ध गुलाब की ही आयेगी। ऐसे ही तुम किसी के अवगुण अपने में मत आने देना। गुलाब की तरह सबको आत्मिक सुगंध, आध्यात्मिक सुगन्ध देना।"

आशीर्वाद बरसाते हुए पुनः उन परम हितैषी पुरुष ने कहाः "आसाराम! तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने। अब तुम गृहस्थ में रहकर संसारताप से तप्त लोगों में यह पाप, ताप, तनाव, रोग, शोक, दुःख-दर्द से छुड़ानेवाला आध्यात्मिक बाँटो और उन्हें भी अपने आत्म स्वरूप में जगाओ।"

बनास नदी के तट पर स्थित डीसा में आप ब्रह्मानन्द की मस्ती लूटते हुए एकान्त में रहे। यहाँ आपने एक मरी हुई गाय को जीवनदान दिया, तबसे लोग आपकी महानता को जानने लगे। फिर तो अनेक लोग आपके आत्मानुभव से प्रस्फुटित सत्संग-सरिता में अवगाहन कर शांति प्राप्त करने तथा अपना दुःख-दर्द सुनाने आपके चरणों में आने लगे।

प्रतिदिन सायंकाल को घूमना आपका स्वभाव है। एक बार डीसा में ही आप शाम को बनास नदी की रेत पर आत्मानन्द की मस्ती में घूम रहे थे कि पीछे से दो शराबी आये और आपकी गर्दन पर तलवार रखते हुए बोलेः "काट दूँ क्या?" आपने बड़ी ही निर्भीकता से जवाब दिया किः "तेरी मर्जी पूर्ण हो।" वे दोनों शराबी तुरन्त ही आपके चरणों में नतमस्तक हो गये और क्षमा याचना करने लगे। एकान्त में रहते हुए भी आप लोकोत्थान की प्रवृत्तियों में संलग्न रहकर लोगों के व्यसन, मांस व मद्यपान छुड़ाते रहे।

उसी दौरान एक दिन आप डीसा से नारेश्वर की ओर चल दिए तथा नर्मदा के तटवर्ती एक ऐसे घने जंगल में पहुँच गये कि वहाँ कोई आता-जाता न था। वहीं एक वृक्ष के नीचे बैठकर आप आत्मा-परमात्मा के ध्यान में ऐसे तन्मय हुए की पूरी रात बीत गई। सवेरा हुआ तो ध्यान छोड़कर नित्यकर्म में लग गये। तत्पश्चात भूख प्यास सताने लगी। लेकिन आपने सोचाः मैं कहीं भी भिक्षा माँगने नहीं जाऊँगा, यहीं बैठकर अब खाऊँगा। यदि सृष्टिकर्ता को गरज होगी तो वे खुद मेरे लिए भोजन लाएँगे।

और सचमुच हुआ भी ऐसा ही। दो किसान दूध और फल लेकर वहाँ आ पहुँचे। संतश्री के बहुत इन्कार करने पर भी उन्होंने आग्रह करते हुए कहाः "हम लोग ईश्वरीय प्रेरणा से ही आपकी सेवा में हाजिर हुए हैं। किसी अदभुत शक्ति ने रात्रि में हमें स्वप्न में मार्ग दिखाकर आपश्री के श्रीचरणों की सेवा में यह सब अर्पण करने को भेजा है।" अतः संतश्री आसाराम जी ने थोड़ा-सा दूध व फल ग्रहण कर यह स्थान भी छोड़ दिया और आबू की एकांत गुफाओं, हिमालय के एकांत जंगलों तथा कन्दराओं में जीवन्मुक्ति का विलक्ष्ण आनंद लूटते रहे। साथ ही साथ संसार के ताप से तप्त हुए लोगों के दुःख निवृत्ति और आत्मशांति के भिन्न-भिन्न उपाय खोजते रहे तथा प्रयोग करते रहे।

लगभग सात वर्ष के लंबे अंतराल के पश्चात परम पूज्य सदगुरुदेव स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के अत्यन्त आग्रह के वशीभूत हो एवं अपनी मातुश्री को दिये हुए वचनों के पालनार्थ पूज्यश्री ने संवत् 2028 में गुरुपूर्णिमा अर्थात 8 जुलाई, 1971 गुरुवार के दिन अमदावाद की धरती पर पैर रखा।

आश्रम स्थापनाः
साबरमती नदी के किनारे की उबड-खाबड़ टेकरियों (मिट्टी के टीलों) पर भक्तों द्वारा आश्रम के रूप में दिनांक 29 जनवरी 1972 को एक कच्ची कुटिया तैयार की गई। इस स्थान के चारों ओर कंटीली झाड़ियाँ व बीहड़ जंगल था, जहाँ दिन में भी आने पर लोगों को चोर-डाकुओं का भय बराबर बना रहता था। लेकिन आश्रम की स्थापना के बाद यहाँ का भयावह एवं दूषित वातावरण एकदम बदल गया। आज इस आश्रमरूपी विशाल वृक्ष की शाखाएँ भारत ही नहीं, विश्व के अनेक देशों तक पहुँच चुकी हैं। साबरमती के बीहड़ों में स्थापित यह कुटिया आज ‘संतश्री आसारामजी आश्रम’ के नाम से एक महान पावन तीर्थधाम बन चुकी है। इस ज्ञान की प्याऊ में आज लाखों की संख्या में आकर हर जाति, धर्म व देश के लोग ध्यान और सत्संग का अमृत पीते हैं तथा अपने जीवन की दुःखद गुत्थियों को सुलझाकर धन्य हो जाते हैं।

आश्रम द्वारा संचालित सत्प्रवृत्तियाँ

आदिवासी विकास की दिशा में कदम

संतश्री आसाराम जी आश्रम एवं इसकी सहयोगी संस्था श्री योग वेदान्त सेवा समिति द्वारा वर्ष भर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा आदि प्रान्तों के आदिवासी क्षेत्रों में पहुँचकर संतश्री के सान्निध्य में निर्धन तथा विकास की धारा से वंचित रहकर जीवन गुजारने वाले वनवासियों को अनाज, वस्त्र, कम्बल, प्रसाद, दक्षिणा आदि वितरित किया जाता है तथा व्यसनों एवं कुप्रथाओं से सदैव बचे रहने के लिए विभिन्न आध्यात्मिक एवं यौगिक प्रयोग उन्हें सिखालाये जाते हैं।

व्यसनमुक्ति की दिशा में कदमः
साधारणतया लोग सुख पाने के लिए व्यसनों के चंगुल में फँसते हैं। पूज्यश्री उन्हें केवल निषेधात्मक उपदेशों के द्वारा ही नहीं अपितु शक्तिपात-वर्षा के द्वारा आंतरिक निर्विषय सुख की अनुभूति करने में समर्थ बना देते हैं, तब उनके व्यसन स्वतः ही छूट जाते हैं।

सत्संग कथा में भरी सभा में विषैले व्यसनों के दुर्गुणों का वर्णन कर तथा उनसे होने वाले नुकसानों पर प्रकाश डाल कर पूज्यश्री लोगों को सावधान करते हैं। समाज में ‘नशे से सावधान’ नामक पुस्तिका के वितरण तथा उनके अवसरों पर चित्र-प्रदर्शनियों के माध्यम से जनमानस में व्यसनों से शरीर पर होने वाले दुष्प्रभावों का प्रसार कर विशाल रूप से व्यसनमुक्ति अभियान संचालित किया जा रहा है। युवाओँ में व्यसनों के बढ़ते प्रचलन को रोकने की दिशा में संत श्री आसाराम जी महाराज, स्वयं उनके पुत्र भी नारायण स्वामी तथा बापूजी के हजारों शिष्य सतत प्रयत्नशील होकर विभिन्न उपचारों एवं उपायों से अब तक असंख्य लोगों को लाभान्वित कर चुके हैं।

संस्कृति के प्रचार की दिशा में कदमः
भारतीय संस्कृति को विश्वव्यापी बनाने के लिए संतश्री केवल भारत के ही गाँव-गाँव और शहर-शहर ही नहीं घूमते हैं अपितु विदेशों में भी पहुँचक भारत के सनातनी ज्ञान से, वेदान्ती अमृत से, भक्ति और ज्ञान की संगठित अपनी अनुभव-सम्पन्न योगवाणी से वहाँ के निवासियों में एक नई शांति, आनंद व प्रसन्नता का संचार करते हैं। इतना ही नहीं, विभिन्न कैसेटों के माध्यम से सत्संग व संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते रहते हैं।

कुप्रथा-उन्मूलन कार्यक्रमः
विशेषकर समाज के पिछड़े वर्गों में व्याप्त कुप्रथाओं तथा अज्ञानता के कारण धर्म के नाम पर तथा भूत-प्रेत, बाधा आदि का भय दिखाकर उनकी सम्पत्ति का शोषण व चरित्र का हनन अधिकाँश स्थानों पर हो रहा है। संतश्री के आश्रम के साधकों द्वारा तथा श्री योग वेदांत सेवा समिति के सक्रिय सदस्यों द्वारा समय-समय पर सामूहिक रूप से ऐसे शोषण कारी षडयंत्रों से बचे रहने का तथा कुप्रथाओं के त्याग का आह्वान किया जाता है।

 निर्धन रोगी सहायता अभियानः
असहायविभिन्न प्रान्तों में निराश्रित, निर्धन तथा बेसहारा किस्म के रोगियों को आश्रम तथा समितियों द्वारा चिकित्सालयों में निशुल्क दवाई, भोजन, फल आदि वितरित किये जाते हैं।

प्राकृतिक प्रकोप में सहायताः
भूकम्प हो, प्लेग हो अथवा अन्य किसी प्रकार की महामारी, आश्रम के साधकगण प्रभावित क्षेत्रों में पहुँच कर पीड़ितों को तन मन धन से आवश्यक सहायता-सामग्री वितरित करते हैं। ऐसे क्षेत्रों में आश्रम द्वारा अनाज, वस्त्र, औषधि एवं फल-वितरण हेतु शिविर भी आयोजित किया जाता है। प्रभावित क्षेत्रों में वातावरण की शुद्धता के लिए धूप भी किया जाता है।

बेसहाराओँ के आश्रय स्थल की नींवः
समाज द्वारा ठुकराये गये बेसहारा लोगों की आश्रय-स्थली के रूप में अति शीघ्र ही भेटासी (गुजरात) आश्रम में एक विशाल भवन का निर्माण किया जा रहा है, जिसकी नींव संतश्री स्वयं अपने करकमलों से रख चुके हैं।

सत्साहित्य एवं मासिक पत्रिका प्रकाशनः
संतश्री आसारामजी आश्रम द्वारा भारत की विभिन्न भाषाओँ एवं अंग्रेजी में मिलाकर अब तक 140 पुस्तकों का प्रकाशन कार्य पूर्ण हो चुका है। यही नहीं, हिन्दी एवं गुजराती भाषा में आश्रम से नियमित मासिक पत्रिका ‘ऋषि प्रसाद’ का भी प्रकाशन होता है, जिसके लाखों-लाखों पाठक हैं। देश-विदेश का वैचारिक प्रदूषण मिटाने में आश्रम का यह सस्ता साहित्य अत्यधिक सहायक सिद्ध हुआ है। इसकी सहायता से अब तक आध्यात्मिक क्षेत्र में लाखों लोग प्रगति के पथ पर आरूढ़ हो चुके हैं।

विद्यार्थी व्यक्तित्त्व विकास शिविरः
आनेवाले कल के भारत की दिशाहीन बनी इस पीढ़ी को संतश्री भारतीय संस्कृति की गरिमा समझाकर जीवन के वास्तविक उद्देश्य की गतिमान करते हैं। विद्यार्थी शिविरों में विद्यार्थियों को ओजस्वी-तेजस्वी बनाने तथा उनके सर्वांगीण विकास के लिए ध्यान की विविध पद्धतियाँ सिखाई जाती हैं। योगासन, प्राणायाम तथा सत्संग-कीर्तन के द्वारा विद्यार्थियों की सुषुप्त शक्तियों को जागृत कर समाज में व्याप्त व्यसनों एवं बुराइयों से छूटने के सरल प्रयोग भी विद्यार्थी शिविरों में कराये जाते हैं। इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों में स्मरणशक्ति तथा एकाग्रता के विकास हेतु विशेष प्रयोग करवाये जाते हैं।

ध्यान योग शिविरः
वर्ष भर में विविध आश्रमों में विविध पर्वों पर वेदान्त शक्तिपात साधना एवं ध्यान योग शिविरों का आयोजन किया जाता है, जिसमें भारत के चारों ओर से ही नहीं, विदेशों से भी अनेक वैज्ञानिक, डॉक्टर, इन्जीनियर आदि भाग लेने उमड़ पड़ते हैं। आश्रम के सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में पूज्यपाद संतश्री आसारामजी बापू का सान्निध्य पाकर हजारों साधक भाई-बहन अपने व्यावहारिक जगत को भूलकर ईश्वरीय आनन्द में तल्लीन हो जाते हैं। बड़े-बड़े तपस्वियों के लिए भी जो दुर्लभ एवं कष्टसाध्य है, ऐसे दिव्य अनुभव पूज्य बापू जी के शक्तिपात द्वारा प्राप्त होने लगते हैं।

निशुल्क छाछ वितरणः
भारत भर की विभिन्न समितियाँ निशुल्क छाछ वितरण केन्द्रों का भी नियमित संचालन करती है तथा ग्रीष्म ऋतु में अनेक स्थानों पर शीतल जल की प्याऊ भी संचालित की जाती है।

गौशाला संचालनः
विभिन्न आश्रमों में ईश्वरीय मार्ग में कदम रखने वाले साधकों की सेवा में दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी आदि देकर गौमाताएँ भी आश्रम की गौशाला में रहकर अपने भवबंधन काटती हुई उत्क्रान्ति की परम्परा में शीघ्र गति से उन्नत होकर अपना जीवन धन्य बना रही हैं। आश्रम के साधक इन गौमाताओं की मातृवत् देखभाल एवं सेवा-चाकरी करते हैं।

आयुर्वैदिक औषधालय व औषध निर्माणः
संतश्री के आश्रमों में चलने वाले आयुर्वैदिक औषधालयों से अब तक लाखों लोग लाभान्वित हो चुके हैं। संतश्री के मार्गदर्शन में आयुर्वेद के निष्णात वैद्यों द्वारा रोगियों का कुशल उपचार किया जाता है। अनेक बार तो अमदावाद व मुंबई के प्रख्यात चिकित्सालयों में गहन चिकित्सा प्रणाली से गुजरने के बाद भी अस्वस्थ्ता यथावत् बनी रहने के कारण रोगी को घर के रवाना कर दिया जाता है। वे ही रोगी मरणासन्न स्थिति में भी आश्रम के उपचार एवं संतश्री के आशीर्वाद से स्वस्थ व तंदरुस्त होकर घर लोटते हैं। साधकों द्वारा जड़ी-बूटियों की खोज कर सूरत आश्रम में विविध आयुर्वैदिक औषधियों का निर्माण किया जाता है।

मौन मन्दिरः
तीव्र साधना की उत्कंठा वाले साधक को साधना के दिव्य मार्ग में गति करने में आश्रम के मौन मन्दिर अत्यधिक सहायक सिद्ध हो रहे हैं। साधना के दिव्य परमाणुओं से घनीभूत इन मौन मन्दिरों में अनेक प्रकार के आध्यात्मिक अनुभव होने लगते हैं, जिज्ञासु को षट्सम्पत्ति की प्राप्ती होती है तथा उसकी मुमुक्षा प्रबल होती है। साधक को मौन मन्दिर में एक सप्ताह के लिए बाहर से ताला लगाकर रखा जाता है। एक सप्ताह तक वह किसी को नहीं देख सकता तथा उसको भी कोई देख नहीं सकता। भोजन आदि उसे भीतर ही प्राप्त होता है। समस्त विक्षेपों के बिना वह परमात्मामय बना रहता है। भीतर उसे अनेक प्राचीन संतों, इष्टदेव व गुरुदेव के दर्शन एवं संकेत मिलते हैं।

साधना सदनः
आश्रम के साधना सदनों में देश-विदेशों से अनेक लोग अपनी इच्छानुसार सप्ताह, दो सप्ताह, मास, दो मास अथवा चातुर्मास की साधना के लिए आते हैं तथा आश्रम के प्राकृतिक ऐकांतिक वातावरण का लाभ लेकर ईश्वरीय मस्ती व एकाग्रता से परमात्मस्वरूप का ध्यान भजन करते हैं।

सत्संग समारोहः
आज के अशांत युग में ईश्वर का नाम, उनका सुमिरन, भजन, कीर्तन व सत्संग ही तो एकमात्र ऐसा साधन है जो मानवता जो जिन्दा रखे बैठा है और यदि आत्मा-परमात्मा को छूकर आती हुई वाणी में सत्संग मिले तो सोने में सुहागा ही मानना चाहिए। श्री योग वेदान्त सेवा समिति की शाखाएँ अपने-अपने क्षेत्रों में संतश्री के सुवचनों का आयोजन कर लाखों की संख्या में आने वाले श्रोताओं को आत्मरस का पान करवाती हैं।

श्री योग वेदान्त सेवा-समितियों के द्वारा आयोजित संतश्री आसारामजी बापू के दिव्य सत्संग समारोह में अक्सर यह विशेषता देखने को मिलती है कि इतनी विशाल जनसभा में ढाई-ढाई लाख श्रोता भी शांत व धीर-गंभीर होकर आपश्री के वचनामृतों का रसपान करते हैं तथा मंडप कितना भी विशाल क्यों नहीं बनाया गया हो, वह भक्तों की भीड़ के आगे छोटा पड़ ही जाता है।

नारी उत्थान कार्यक्रमः
‘राष्ट्र को उन्नति के परमोच्च शिखर तक पहुँचाने के लिए सर्वप्रथम नारी-शक्ति का जागृत होना आवश्यक है...’ यह सोचकर इन दीर्घदृषटा मनीषी ने साबरमती के तट पर ही अपने आश्रम से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर ‘नारी उत्थान केन्द्र’ के रूप में महिला आश्रम की स्थापना की।

महिला आश्रम में भारत के विभिन्न प्रान्तों से एवं विदेशों से आईं हुई अनेक सन्नारियाँ सौहार्दपूर्वक जीवनयापन करती हुई आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हो रही हैं।

साधनाकाल के दौरान विवाह के तुरन्त बाद संतश्री आसाराम जी महाराज अपने अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार की सिद्धि के लिए गृहस्थी का मोहक जामा उतारकर अपने सदगुरुदेव के सान्निध्य में चले गये थे। आपश्री की दी हुई आज्ञा एवं मार्गदर्शन के अनुरूप सर्वगुणसम्पन्न परम पतिव्रता श्री श्री माँ लक्ष्मीदेवी ने अपने स्वामी की अनुपस्थिति में तपोनिष्ठ साधनामय जीवन बिताया। सांसारिक सुखों की आकांक्षा छोड़कर अपने पतिदेव के आदर्शों पर चलते हुए आपने आध्यात्मिक साधना के रहस्यमय गहन मार्ग में पदार्पण किया तथा साधनाकाल के दौरान जीवन को सेवा के द्वारा घिसकर चंदन की भाँति सुवासित बनाया।

सौम्य, शांत, गंभीर वदनवाली पूज्य माताजी महिला आश्रम में रहकर साधना मार्ग में साधिकाओं का उचित मार्गदर्शन करती हुई अपने पतिदेव के दैवी कार्यों में सहभागी बन रही हैं।

जहाँ एक ओर संसार की अन्य नारियाँ फैशनपरस्ती एवं पश्चिम की तर्ज पर विषय-विकारों में अपना जीवन व्यर्थ गँवा रही हैं, वहीं दूसरी ओर इस आश्रम की युवतियाँ संसार के समस्त आकर्षणों को त्यागकर पूज्य माताजी की स्नेहमयी छत्रछाया में उनसे अनुष्ठान एवं साधना की प्रेरणा पाकर संयमी व सदाचारी जीवनपथ पर अग्रसर हो रही हैं..... दिव्य एवं आनंदित जीवनयापन कर रही हैं।

नारी के सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए महिला आश्रम में आसन, प्राणायाम, जप, ध्यान, कीर्तन, स्वाध्याय के साथ-साथ विभिन्न पर्वों, उत्सवों पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है, जिसका संचालन संतश्री की सुपुत्री सुश्री भारतीदेवी करती हैं।

ग्रीष्मावकाश में देश भर से सैंकड़ों महिलाएँ एवं युवतियाँ महिला आश्रम में आती हैं, जहाँ उन्हें पूजनीया माताजी एवं वंदनीया भारतीदेवी द्वारा भावी जीवन को सँवारने, पढ़ाई में सफलता प्राप्त करने तथा जीवन में प्रेम, शांति, सदभाव, परोपकारिता के गुणों की वृद्धि के संबंध में मार्गदर्शन प्रदान किया जाता है।

गृहस्थी में रहने वाली महिलाएं भी अपनी पीड़ाओं एवं गृहस्थ की जटिल समस्याओं के संबंध में पूजनीया माताजी से मार्गदर्शन प्राप्त कर स्वयं के तथा परिवार के जीवन को संवारती हैं। वे अनेक बार यहाँ आती तो हैं रोती हुई, दुःखी और उदास, लेकिन जब यहाँ से लौटती हैं तो उनके मुखमंडल पर असीम शांति और अपार हर्ष की लहर छायी रहती है।

महिला आश्रम में निवास करने वाली साध्वी बहनें विभिन्न शहरों एवं ग्रामों में जाकर संत श्री आसाराम जी बापू द्वारा प्रदत्त ज्ञान एवं भारतीय संस्कृति के उच्चादर्शों का प्रचार-प्रसार करते हुए बच्चों के उचित पोषण करने, गृहस्थी के सफल संचालन करने तथा नारीधर्म निबाहने की युक्तियाँ भी एवं भारतीय संस्कृति के पालन संदेशों को बताती हैं।

नारी उत्थान केन्द्र की अनुभवी साध्वी बहनों द्वारा विद्यालयों में घूम-घूम कर स्मरणशक्ति के विकास एवं एकाग्रता के लिए प्राणायाम, योगासन, ध्यान आदि की शिक्षा दी जाती है। इन बहनों द्वारा विद्यार्थी जीवन में संयम के महत्त्व तथा व्यसनमुक्ति से लाभ के विषय पर भी प्रकाश डाला जाता है।

संतश्री के मार्गदर्शन में महिला आश्रम द्वारा धन्वन्तरि आरोग्य केन्द्र के नाम से एक आयुर्वैदिक औषधालय भी संचालित किया जाता है, जिसमें साध्वी वैद्यों द्वारा रोगियों का निशुःल्क उपचार किया जाता है। अनेक दीर्घाकालिक एवं असाध्य रोग यहाँ के कुछ दिनों के साधारण उपचारमात्र से ही ठीक हो जाते हैं। जिन रोगियों को एलोपैथी में एकमात्र ऑपरेशन ही उपचार के रूप में बतलाया गया था, ऐसे रोगी भी आश्रम की बहनों द्वारा किये गये आयुर्वैदिक उपचार से ही बिना ऑपरेशन के ही स्वस्थ हो गये।

इसके अतिरिक्त महिला आश्रम में संतकृपा चूर्ण, आँवला चूर्ण एवं रोगाणुनाशक धूप का निर्माण भी बहने अपने हाथों से करती हैं। सत्साहित्य प्रकाशन के लिए संतश्री की अमृतवाणी का लिपिबद्ध संकलन, पर्यावरण संतुलन के लिए वृक्षारोपण एवं कृषिकार्य तथा गौशाला का संचालन आश्रम की साध्वी बहनों द्वारा ही किया जाता है।

नारी किस प्रकार से अपनी आन्तरिक शक्तियों को जगाकर नारायणी बन सकती है तथा अपनी संतानों एवं परिवार में सुसंस्कारों का सिंचन कर भारत का भविष्य उज्जवल कर सकती है, इसकी ऋषि-महर्षि प्रणीत प्राचीन प्रणाली को अमदावाद महिला आश्रम की साध्वी बहनों द्वारा ‘बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय’ समाज में प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है।

महिलाओं को एकांत साधना के लिए नारी उत्थान आश्रम में मौनमन्दिर व साधना सदन आदि भी उपलब्ध कराये जाते हैं। इनमें अब तक देश-विदेश की हजारों बहनें साधना कर ईश्वरीय आनन्द और आन्तरिक शक्ति जागरण की दिव्यानुभूति प्राप्त कर चुकी हैं।

विद्यार्थियों के लिए सस्ती नोटबुक (उत्तरपुस्तिका)
संतश्री आसाराम जी आश्रम, साबरमती, अहमदाबाद से प्रतिवर्ष स्कूलों एवं कालेजों के विद्यार्थियों के लिए प्रेरणादायी उत्तरपुस्तिकाओं (Note Book) का निर्माण किया जाता है।

इन उत्तरपुस्तिकाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसके प्रत्येक पेज पर संतों, महापुरुषों की तथा गाँधी व लाल बहादुर जैसे ईमानदार नेताओं की पुरुषार्थ की ओर प्रेरित करने वाली जीवनोद्वारक वाणी अंतिम पंक्ति में अंकित रहती है। इनकी दूसरी विशेषता यह है कि ये बाजार के भाव से बहुत सस्ती होती ही हैं, साथ ही गुणवत्ता की दृष्टि से भी बाजारु उत्तरपुस्तिकाओं की तुलना में उत्कृष्ट, सुसज्ज एवं चित्ताकर्षक होती हैं।

विद्यार्थी जीवन में दिव्यता प्रकटाने में समर्थ संत श्री आसाराम जी बापू के तेजस्वी संदेशों से सुसज्ज मुख्य पृष्ठोंवाली ये उत्तरपुस्तिकाएँ निर्धन बच्चों में यथास्थिति के देखकर निःशुल्क अथवा आधे मूल्य पर अथवा रियायती दरों पर वितरित की जाती हैं, ताकि निर्धनता के कारण भारत का भविष्यरूपी कोई बालक अशिक्षित न रह जाये।

ये उत्तरपुस्तिकाएँ बाजार भाव से 15 से 20 रुपये प्रति दर्जन सस्ती होती हैं। इसीलिए भारत के चारों कोनों में स्थापित श्री योग वेदान्त सेवा समितियों द्वारा प्रतिवर्ष समाज में हजारों नहीं, अपितु लाखों की संख्या में इन नोटबुकों का प्रचार-प्रसार किया जाता है।

भाषाज्ञानः
यद्यपि संतश्री आसाराम जी महाराज की लौकिक शिक्षा केवल तीसरी कक्षा तक ही हुई है, लेकिन आत्मविद्या, योगविद्या व ब्रह्मविद्या के धनी आपश्री को भारत की अनेक भाषाओं, यथा-हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, मराठी, भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी आदि का ज्ञान है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक भारतीय भाषाओं का ज्ञान भी आपश्री के पास संचित है।

सादगीः
संतश्री के जीवन में सादगी एवं स्वच्छता कूट-कूट कर भरी हुई है। आप सादा जीवन जीना अत्यधिक उत्कृष्ट समझते हैं। व्यर्थ के दिखावे में आप कतई विश्वास नहीं करते। आपका सूत्र हैः ‘जीवन में तीन बातें अत्यधिक जरुरी हैं- 1. स्वस्थ जीवन 2. सुखी जीवन 3. सम्मानित जीवन।’ स्वस्थ जीवन ही सुखी जीवन बनता है तथा सत्कर्मों का अवलंबन लेने से जीवन सम्मानित बनता है।

सर्वधर्म समभावः
आप सभी धर्मों का समान आदर करते हैं। आपकी मान्यता है कि सारे धर्मों का उदगम भारतीय संस्कृति के पावन सिद्धान्तों से ही हुआ है। आप कहते हैं-

"सारे धर्म उस एक परमात्मा की सत्ता उत्पन्न हुए हैं और सारे-के-सारे उसी एक परमात्मा में समा जाएँगे। लेकिन जो सृष्टि के आरंभ में भी था, अभी भी है और जो सृष्टि के अंत में भी रहेगा, ही तुम्हारा आत्मा ही सच्चा धर्म है। उसे ही जान लो, बस। तुम्हारी सारी साधना, पूजा, इबादत और प्रेयर (प्रार्थना) पूरी हो जाएगी।"

परम श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठः
आपश्री को वेद, वेदान्त, गीता, रामायण, भागवत, योगवशिष्ठमहारामायण, योगशास्त्र, महाभारत, समृतियाँ, पुराण, आयुर्वेद आदि अन्यान्य धर्मग्रन्थों का मात्र अध्ययन ही नहीं, आप इनके ज्ञाता होकर अनुभवनिष्ठ आत्मवेत्ता संत भी हैं।

वर्षभर क्रियाशीलः
आपके दिल में मानवमात्र के लिए करुणा, दया व प्रेम भरा है। जब भी कोई दीन-हीन आपश्री को अपने दुःख-दर्द की करुणा गाथा सुनाता है, आप तत्क्षण ही उसका समाधान बता देते हैं। भारतीय संस्कृति के उच्चादर्शों का स्थायित्व समाज में सदैव बना ही रहे, इस हेतु आप सतत् क्रियाशील बने रहते हैं। भारत के प्रांत-प्रांत और गाँव-गाँव में भारतीय संस्कृति का अनमोल खजाना बाँटने के लिए आप सदैव घूमा ही करते हैं। समाज के दिशाहीन युवाओं को, पथभ्रष्ट विद्यार्थियों को एवं लक्ष्यविहीन मानव समुदाय को सन्मार्ग पर प्रेरित करने के लिए अनेक कष्टों व विघ्नों का सामना करते हुए भी आप सतत प्रयत्नशील हैं। आप चाहते हैं कि कैसे भी करके, मेरे देश का नौजवान सत्यमार्ग का अनुसरण कर अपनी सुषुप्त शक्तियों को जागृत कर महानता के सर्वोत्कृष्ट शिखर पर आसीन हो जाए।

विदेशगमनः
सर्वप्रथम आप सन् 1984 में भारतीय योग और वेदान्त के प्रचारार्थ 28 मई से शिकागो, सेंटलुईस, लासएंजलिस, कोलिन्सविले, सैन्फ्रान्सिस्को, कनाडा, टोरेन्टो आदि शहरों में पदार्पण किये।

सन् 1986 में पुनः 26 अप्रैल से 8 मई तक आपने पूर्वी अफ्रीका में केन्या के नैरोबी, मोम्बासा आदि शहरों में भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म के उपदेशामृतों का शंखनाद किया। इसके बाद 10 मई को लंदन आये तथा 12 मई तक यहाँ जनमानस को सत्संग प्रवचन का लाभ प्रदान किया। वहाँ से आपश्री ने अमेरिका की ओर प्रस्थान किया। यहाँ पहुँचकर आपने 17 मई 1986 से न्यजर्सी व न्ययार्क में तथा 13 जून को U.S.A. के शिकागो, इंगलवुड व जोलियट में, 14 एवं 15 जून को कनाडा के ओटावा में, 18 से 22 जून तक पुनः न्यूयार्क व न्यजर्सी में तथा 29 जून से 5 जुलाई तक पुनः लंदन व लिस्टर में भारत के अध्यात्म का प्रचार किया। तत्पश्चात आप स्वदेश लौटे।

सन् 1987 में सितम्बर-अक्तूबर माह के दरम्यान आपश्री भारतीय भक्ति-ज्ञान की सरिता प्रवाहित करने इंगलैंड, पश्चिमी जर्मनी, स्विटजरलैंड, अमेरिका व कनाडा के प्रवास पर पधारे। 19 अक्तूबर, 1987 को शिकागो में आपने एक विशाल धर्मसभा को सम्बोधित किया।

सन् 1989 में 8 से 10 अक्तूबर तक आपश्री ने मुस्लिम राष्ट्र दुबई में, 28 से 31 अक्तूबर तक हाँगकाँग में तथा 1 से 3 नवम्बर तक सिंगापुर में भक्ति-ज्ञान की गंगा प्रवाहित की।

आपश्री सन् 1993 में 19 जुलाई से 4 अगस्त तक हांगकांग, ताईवान, बैंकाक, सिंगापुर, इंडोनेशिया (मुस्लिम राष्ट्र) में सत्संग प्रवचन किये। तत्पश्चात आप स्वदेश लौटे। लेकिन मानवमात्र के हितैषी इन महापुरुष को चैन कहाँ? अतः वेदान्त शक्तिपात साधना शिविर के माध्यम से मानव मन में सोई हुई आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत करने आप 12 अगस्त 1993 को पुनः न्यजर्सी, न्यूयार्क, बोस्टन, आल्बनी, क्लिपटन, जोलियट, लिटलफोक्स आदि स्थानों के लिए रवाना हुए। इसी दौरान आपश्री ने शिकागो में आयोजित ‘विश्व धर्म संसद’ में भाग लेकर भारत देश को गौरवान्वित किया। तत्पश्चात कनाडा के टोरेन्टो व मिसीसोगा तथा ब्रिटेन के लंदन एवं लिस्टर में अध्यात्म विद्या की पताका लहराते हुए आप भारत लौटे।

सन् 1995 में पुनः 21 से 23 जुलाई तक अमेरिका के न्यूजर्सी में, 28 से 31 जुलाई तक कनाडा के टोरेन्टो में, 5 से 8 अगस्त तक शिकागो में तथा 12 से 14 अगस्त तक ब्रिटेन के लंदन में आपश्री के दिव्य सत्संग समारोह आयोजित हुए।

शिष्यों की संख्याः
भारत सहित विश्व के अन्य देशों में आपश्री के शिष्यों की संख्या 15 लाख से भी अधिक है। विभिन्न धर्मों, सम्प्रदाय, मजहबों के लोग जाति-धर्म का भेदभाव भूलकर आपश्री के मार्गदर्शन में ही जीवनयापन करते हैं। आपके श्रोताओँ की संख्या तो करोड़ों में है। वे आज भी अत्यधिक एकाग्रता के साथ आपश्री के सुप्रवचनों का ऑ़डियो-विडियो कैसेटों के माध्यम से रसपान करते हैं।

यह अत्यधिक आश्चर्य का विषय है। अनेक शिष्य तो पी.एच.डी., डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, प्राध्यापक, राजनेता एवं उद्योगपति हैं।

अध्यात्म में भी आप सभी मार्गों भक्तियोग, ज्ञानयोग, निष्काम कर्मयोग एवं कुंडलिनी योग का समन्वय करके अपने विभिन्न स्तर के जिज्ञासु साधक-शिष्यों के लिए सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं। आश्रम में सत्संग-प्रवचन के बाद आपश्री के घंटों तक व्यासपीठ पर ही विराजमान रहकर समाज के विभिन्न वर्गों के दीन-दुखियों एवं रोगियों की पीड़ा सुनकर उन्हें विभिन्न समस्याओं से मुक्त होने की युक्तियाँ बताते हैं। आश्रम में शिविर के दौरान तीन कालखंडों में दो-दो घंटे के सत्संग प्रवचन होते हैं, लेकिन उसके बाद दीन-दुखियों की सुबह-शाम तीन-तीन घंटे तक कतारें चलती हैं, जिसमें आपश्री उन्हें विभिन्न समस्याओं का समाधान बतलाते हैं।

सिंहस्थ (कुम्भ) उज्जैन व अर्धकुम्भ इलाहाबादः
सन् 1992 में उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ (कुम्भ) में आपश्री का सत्संग सतत एक माह तक चला। दिनांक 17 अप्रैल से 16 मई, 1992 तक चले इस विशाल कुम्भ मेले में संत आसाराम जी नगर की विशालता, भव्यता, साज-सज्जा एवं कुशल संचालन तथा समुचित सुन्दर व्यवस्था ने देश-विदेश से आये करोड़ों लोगों को प्रभावित एवं आकर्षित किया।

आपकी अनुभव सम्पन्न वाणी जिसके भी कानों से टकराई, बस उसे यही अनुभव हुआ कि जीवन को वास्तविक दिशा प्रदान करने में आपके सुप्रवचनों में भरपूर सामर्थ्य है। यही कारण है कि सतत एक माह तक प्रतिदिन दो-ढाई लाख से भी अधिक बुद्धिजीवी श्रोताओं से आपकी धर्मसभा भरी रहती थी और सबसे महान आश्चर्य तो यह होता कि इतनी विशाल धर्मसभा में कहीँ भी किसी श्रोता की आवाज या शोरगुल नहीं सुनाई पड़ता था। सबके-सब श्रोता आत्मानुशासन में बैठे रहते थे। यह विशेषता आपके सत्संग में आज भी मौजूद है।

आपश्री के सत्संग राष्ट्रीय विचारधारा के होते हैं, जिनमें साम्प्रदायिक विद्वेष की तनिक भी बू नहीं आती। आपश्री की वाणी किसी धर्मविशेष के श्रोता के लिए नहीं अपितु मानवमात्र के लिए कल्याण कारी होती है। यही कारण है कि इलाहाबाद के अर्धकुम्भ मेले के अंतिम दिनों में आपके सत्संग-प्रवचन कार्यक्रम आयोजित होने पर भी काफी समय पूर्व से आई भारत की श्रद्धालु जनता आपश्री के आगमन की प्रतीक्षा करती रही। दिनांक 1 से 4 फरवरी, 1995 तक आपका प्रयाग (इलाहाबाद) के अर्धकुम्भ में सिंहस्थ उज्जैन के समान ही विराट सत्संग समारोह हुआ।

राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया प्रसारणः
ऐसे तो भारत के कई शहरों एवं कस्बों में आपश्री के यूमैटिक, बिटाकेम व यू.एच.एस. कैसेटों के माध्यम से निजी चैनलों पर लोग घर बैठे-बैठे ही सत्संग का लाभ लेते हैं लेकिन विभिन्न पर्वों, उत्सवों आदि के अवसर पर भी आपश्री के कल्याणकारी सुप्रवचन आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न स्टेशनों तथा राष्ट्रीय प्रसारण केन्द्रों से भी प्रसारित किये जाते हैं।

विदेश प्रवास के दौरान वहाँ के लोगों को भी आपश्री के सुप्रवचनों का लाभ प्रदान करने की दृष्टि से आपके वहाँ पहुँचते ही विदेशी मीडिया सक्रिय हो जाता है तथा आपके कार्यक्रमों को रिकार्ड कर विदेशी जनता को उसका लाभ दिया जाता है। कनाडा के एक रेडियो स्टेशन ‘ज्ञानधार’ पर तो आज भी भजनावली कार्यक्रम में आपश्री के सत्संग विशेष रूप से प्रसारित किये जाते हैं।

विश्वधर्म संसद में भी आपश्री की विद्वता से प्रभावित होकर शिकागो दूरदर्शन ने आपके इन्टरव्यू को प्रसारित किया था, जिसे विदेशों में लाखों दर्शकों ने सराहा था एवं पुनर्प्रसारण की माँग भी की थी।

आपश्री के सुप्रवचनों की अन्तर्राष्ट्रीय लोकप्रियता को देखते हुए जी.टी.वी. ने भी माह अक्तूबर, 1994 से अपने रविवारीय साप्ताहिक सीरियल ‘जागरण’ के माध्यम से अनकों सप्ताह के लिए आपके सत्संग-प्रवचनों का अन्तर्राष्ट्रीय प्रसारण आरम्भ किया। इसके नियमित प्रसारण की माँग को लेकर जी.टी.वी. कार्यक्रम में भारत सहित विदेशों से हजारों-हजारों पत्र आये थे। दर्शकों की माँग पर जी.टी.वी. ने इस कार्यक्रम का दैनिक प्रसारण ही आरम्भ कर दिया। ए.टी.एन., सोनी, यस आदि चैनल भी पूज्यश्री के सुप्रवचनों का अन्तर्राष्ट्रीय प्रसारण करते रहते हैं।

भारतीय दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण केन्द्र एवं क्षेत्रीय स्टेशनों से आपके सुप्रवचनों का तो अनेकानेक बार प्रसारण हो चुका है। आपके जीवन तथा आश्रम द्वारा संचालित सत्प्रवृत्तियों पर दिल्ली दूरदर्शन द्वारा निर्मित किये गये वृत्तचित्र ‘कल्पवृक्ष’ का राष्ट्रीय प्रसारण दिनांक 9 मार्च, 1995 को प्रातः 8.40 से 9.12 बजे तक किया गया, जिसके पुनः प्रसारण की माँग को लेकर दूरदर्शन के पास हजारों पत्र आये। फलस्वरूप, दिनांक 25 सितम्बर, 1995 को दूरदर्शन ने पुनः इसका राष्ट्रीय प्रसारण किया।

इसके अतिरिक्त संतश्री आसारामजी महाराज के सत्संग-प्रवचन जिस क्षेत्र में आयोजित होते हैं, वहाँ के सभी अखबार आपके सत्संग-प्रवचनों के सुवाक्यों से भरे होते हैं।

विश्व धर्मसंसद शिकागो में प्रवचनः
माह सितम्बर, 1993 के प्रथम सप्ताह में शिकागो में विश्व धर्मसंसद का आयोजन किया गया था जिसमें सम्पूर्ण विश्व से 300 से अधिक वक्ता आमंत्रित थे। भारत से आपश्री को भी वहाँ मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था। आपके सुप्रवचन वहाँ दिनांक 1 से 4 सितम्बर, 1993 के दौरान हुए। यह आश्चर्य का विषय है कि पहले दिन आपको बोलने के लिए केवल 35 मिनट का समय मिला, लेकि 55 मिनट तक आपश्री को सभी मंत्रमुग्ध होकर श्रवण करते रहे। अंतिम दिन आपको सवा घंटे का समय मिला, लेकिन सतत एक घंटा 55 मिनट तक आपश्री के सुप्रवचन चलते रहे। विश्वधर्म संसद में आप ही एकमात्र ऐसे भारतीय वक्ता थे, जिन्हें तीन बार जनता को सम्बोधित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।

संपूर्ण विश्व से आये हुए विशाल एवं प्रबुद्ध श्रोताओं की सभा को सम्बोधित करते हुए आपश्री ने कहाः

"हम किसी देश में, किसी भी जाति में रहते हों, कुछ भी कर्म करते हों, लेकिन सर्वप्रथम मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। पहले मानवाधिकार होते हैं, बाद में मजहबी अधिकार। लेकिन आज हम मजहबी अधिकारों में, संकीर्णता में एक-दूसरे से भिड़कर अपना वास्तविक अधिकार भूलते जा रहे हैं।

जो व्यक्ति, जाति, समाज और देश ईश्वरीय नियमों के अनुसार चलता है, उसकी उन्नति होती है तथा जो संकीर्णता से चलता है, उसका पतन होता है। यह ईश्वरीय सृष्टि का नियम है।

आज का आदमी एक-दूसरे का गला दबाकर सुखी रहना चाहता है। एक गाँव दूसरे गाँव को और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को दबाकर खुद सुखी होना चाहता है, लेकिन यह सुख का साधन नहीं है। सुख का सच्चा साधन है, एक दूसरे की मदद व भलाई करना। सुख चाहते हो तो पहले सुख देना सीखो। हम जो कुछ करते हैं, घूम फिरकर वह हमारे पास आता है। इसीलिए विज्ञान के साथ-साथ मानवज्ञान की भी जरूरत है। आज का विज्ञान संसार को सुन्दर बनाने की बजाय भयानक बना रहा है क्योंकि विज्ञान के साथ वेदान्त का ज्ञान लुप्त हुआ जा रहा है।

आपश्री ने आह्वान कियाः हम चाहे U.S.A. के हों, U.K. के हों, भारत के हों, पाकिस्तान के हों या अन्य किसी भी देश के, आज विश्व को सबसे बड़ी आवश्यकता है कि वह पथभ्रष्ट और विनष्ट होती हुई युवा पीढ़ी को यौगिक प्रयोग के माध्यम से बचा ले क्योंकि नई पीढ़ी का पतन होना प्रत्येक राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। आज सभी जातियों, मजहबों एवं देशों को आपसी तनावों तथा संकीर्ण मानसिकताओं को छोड़कर तरुणों की भलाई में ही सोचना चाहिए। विश्व को आज आवश्यकता है कि वह योग और वेदान्त की शरण में जाये।

आपश्री ने आह्वान कियाः "इस युग के समस्त वक्ताओं से, चाहे वे राजनीति के क्षेत्र के हों या धर्म के क्षेत्र के, मेरी विनम्र प्रार्थना है कि वे समाज में विद्रोह पैदा करने वाला भाषण न करे अपितु प्रेम बढ़ाने वाला भाषण देने का प्रयास करें। मानवता को विद्रोह की जरुरत नहीं है अपितु परस्पर प्रेम व निकटता की जरुरत है। किसी भारतवासी के किसी कृत्य पर भारत के धर्म की निन्दा करके मानव जाति को सत्य से दूर करने की कोशिश न करें – यह मेरी प्रार्थना है।"

बार-बार तालियों की गड़गड़ाहट के साथ आपश्री के सुप्रवचनों का जोरदार स्वागत होता था। विश्वधर्म संसद में ही भाग लेने आये एक अफ्रीकी धर्मगुरु तो आपश्री की यौगिक शक्तियों से इतने प्रभावित हुए कि वे बार-बार नतमस्तक होकर आपके चरण चूमने लगे तथा दीक्षाप्राप्ति की माँग करने लगे।

प्रवचनों की संख्याः
अब तक देश-विदेश में आपश्री के हजारों प्रवचन आयोजित हो चुके हैं, जिनमें 8400 घंटों के आपश्री के सुप्रवचन आश्रम में ऑडियो कैसेट में रिकार्ड किये हुए रेकार्ड रूम में रखे हुए पड़े हैं। आपश्री के पावन सान्निध्य में आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण के लिए आयोजित होने वाले शिविरों में सर्वप्रथम शिविर में मात्र 163 शिविरार्थियों नें भाग लिया था, जबकि होली पर्व 1995 के सूरत आश्रम के शिविर में दस हजार से अधिक शिविरार्थी थे। यह शक्तिपात-वर्षा के लाभ का चमत्कार है।

आदिवासी उत्थान कार्यक्रमः
संतश्री आसाराम जी बापू केवल प्रवचनों अथवा वेदान्त शक्तिपात साधना शिविरों तक ही सीमित नहीं रहते हैं अपितु समाज के सबसे पिछड़े वर्ग में आने वाले, समाज से कोसों दूर वनों और पर्वतों में बसे आदिवासियों के नैतिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक, सामाजिक एवं शारीरिक विकास के लिए भी सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। पर्वतीय, वन्य अथवा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में जाकर संतश्री स्वयं उनके बीच कपड़ा, अनाज, कम्बल, छाछ, भोजन व दक्षिणा का वितरण करते-कराते हैं। अब तक आप भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आदिवासियों के उत्थान हेतु अनेक कार्यक्रम व गतिविधियाँ संचालित कर चुके हैं। जैसे, गुजरात में धरमपुर, कोटड़ा, नानारांधा, भैरवी आदि; राजस्थान में सागवाड़ा, प्रतापगढ़, कुशलगढ़, नाणा, भीमाणा, सेमलिया आदि; मध्यप्रदेश में रायपुरिया, गढखंगई, सैलाना, सरवन, अमझेरा आदि; महाराष्ट्र में नावली, खापर, जावदा, प्रकाशा आदि व उड़ीसा में भद्रक आदि।

उपरोक्त वर्णित स्थानों पर अनेक बार संतश्री के पावन सान्निध्य में आदिवासियों के उत्थान के लिए भंडारा एवं सत्संग-प्रवचन समारोह आयोजित हो चुके हैं।

एकता व अखंडता के प्रबल समर्थकः
आप भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के प्रबल समर्थक हैं। यही कारण है कि एक हिन्दू संत होने के बावजूद भी हजारों मुस्लिम, ईसाई, पारसी, सिख, जैन व अन्यान्य धर्मों के अनुयायी आपश्री के शिष्य कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। आपश्री की वाणी में साम्प्रदायिक संकीर्णता का विद्वेष लेशमात्र भी नहीं है। आपकी मान्यता हैः

"संसार के जितने भी मजहब, मत-पंथ, जात-नात आदि हैं, वे उसी एक चैतन्य परमात्मा की सत्ता से स्फुरित हुए हैं और सारे-के-सारे एक दिन उसी में समा जाएँगे। फिर अज्ञानियों की तरह भारत को धर्म, जाति, भाषा व सम्प्रदाय के नाम पर क्यों विखंडित किया जा रहा है? निर्दोष लोगों के लहू से भारत की पवित्र धरा को रंजित करने वाले लोगों को तथा अपने तुच्छ स्वार्थों की खातिर देश की जनता में विद्रोह फैलाने वालों को ऐसा सबक सिखाना चाहिए कि भविष्य में कोई भी व्यक्ति या जाति भारत के साथ गद्दारी करने की बात सोच भी न सके।"

आप ही की तरह आपका विशाल शिष्य-समुदाय भी भारत की राष्ट्रीय एकता, अखंडता व शांति का समर्थक होकर अपने राष्ट्र के प्रति पूर्णरपेण समर्पित हैं।

आपश्री के सुप्रवचनों से सुसज्ज पुस्तक ‘महक मुसाफिर’ को भोपाल का एक मौलवी (मुसलमान धर्मगुरु) पढ़कर इतना प्रभावित हुआ कि उसने स्वयं इस पुस्तक का उर्दू में अनुवाद किया तथा मुस्लिम समाज के लिए प्रकाशित करवाया।

1 comment:

  1. धन्य हैं इस ब्लॉग को लिखनेवाले ....सद्गुरु देव की आसीम कृपा हो आप पर....बहुत अच्छा ....ॐ हरी ॐ

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